इस्लाम धर्म में विश्वास करने वाले लोगो के लिए मुहर्रम एक प्रमुख माह

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उन्नाव।बांगरमऊ नगर के मोहल्ला गुलाम मुस्तफा (गोल कुआं) की हुसैनी मस्जिद के पेश इमाम हाफिज व मौलाना मोईनुद्दीन कादरी ने मस्जिद में नमाज के बाद लोगों को खिताब करते हुए माहे मोहर्रम की फजीलत बयान करते हुए कहा कि इस्लाम धर्म में विश्वास करने वाले लोगों का मुहर्रम एक प्रमुख महीना है। इस माह की उनके लिए बहुत विशेषता और महत्ता है। इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार मुहर्रम हिजरी संवत् का प्रथम मास है। पैगंबर मुहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन एवं उनके साथियों की शहादत इस माह में हुई थी।

मुहर्रम सब्र का, इबादत का महीना है। इसी माह में पैगंबर हजरत मुहम्मद स०अलैह० ने पवित्र मक्का से पवित्र नगर मदीना में हिजरत की थी यानी कि आप स०अलैह० मक्का से मदीना मुनव्वरा तशरीफ लाए। मुहर्रम में लोग रोजे रखते हैं। पैगंबर मुहम्मद स० अलैह० के नाती की शहादत तथा करबला के शहीदों के बलिदानों को याद किया जाता है। कर्बला के शहीदों ने इस्लाम धर्म को नया जीवन प्रदान किया था। तमाम लोग इस माह में पहले 10 दिनों के रोजे रखते हैं। जो लोग 10 दिनों के रोजे नहीं रख पाते, वे मोहर्रम की 9 और 10 तारीख के रोजे रखते हैं। इस दिन जगह-जगह पानी के प्याऊ और शरबत की छबील लगाई जाती है। इस दिन पूरे देश में लोगों की अटूट आस्था का भरपूर समागम देखने को मिलता है। कर्बला यानी आज का इराक, जहां सन् 60 हिजरी को यजीद इस्लाम धर्म का खलीफा बन बैठा। वह अपने वर्चस्व को पूरे अरब में फैलाना चाहता था जिसके लिए उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती थी पैगम्बर मुहम्मद के खानदान के इकलौते चिराग इमाम हुसैन, जो किसी भी हालत में यजीद के सामने झुकने को तैयार नहीं थे।
इस वजह से सन् 61 हिजरी से यजीद के अत्याचार बढ़ने लगे। ऐसे में इमाम हुसैन अपने परिवार और साथियों के साथ मदीना से इराक के शहर कुफा जाने लगे लेकिन रास्ते में यजीद की फौज ने कर्बला के रेगिस्तान पर इमाम हुसैन के काफिले को रोक दिया।
वह 2 मुहर्रम का दिन था, जब हुसैन का काफिला कर्बला के तपते रेगिस्तान पर रुका। वहां पानी का एकमात्र स्रोत फरात नदी थी, जिस पर यजीद की फौज ने 6 मुहर्रम से हुसैन के काफिले पर पानी के लिए रोक लगा दी थी। बावजूद इसके, इमाम हुसैन नहीं झुके। यजीद के प्रतिनिधियों की इमाम हुसैन को झुकाने की हर कोशिश नाकाम होती रही और आखिर में युद्ध का ऐलान हो गया। इतिहास कहता है कि यजीद की 80,000 की फौज के सामने हुसैन के 72 बहादुरों ने जिस तरह जंग की, उसकी मिसाल खुद दुश्मन फौज के सिपाही एक-दूसरे को देने लगे। लेकिन हुसैन कहां जंग जीतने आए थे, वे तो अपने आपको अल्लाह की राह में कुर्बान करने आए थे। उन्होंने अपने नाना और पिता के सिखाए हुए सदाचार, उच्च विचार, अध्यात्म और अल्लाह से बेपनाह मुहब्बत में प्यास, दर्द, भूख और पीड़ा सब पर विजय प्राप्त कर ली। 10वें मुहर्रम के दिन तक हुसैन अपने भाइयों और अपने साथियों के शवों को दफनाते रहे और आखिर में खुद अकेले युद्ध किया फिर भी दुश्मन उन्हें मार नहीं सका। आखिर में अस्र की नमाज के वक्त जब इमाम हुसैन खुदा का सजदा कर रहे थे, तब एक यजीदी को लगा कि शायद यही सही मौका है हुसैन को मारने का। फिर, उसने धोखे से हुसैन को शहीद कर दिया। इमाम हुसैन तो शहीद होकर भी जिंदा रहे और हमेशा के लिए अमर हो गए, पर यजीद तो जीतकर भी हार गया। इस मौके पर समाजसेवी फजलुर्रहमान, हबीबुल रहमान बाबूजी, अजीजुर्रहमान आदिल, अब्दुल कादिर कव्वाल, नादिर कव्वाल, मो० इशाक, शब्बीर बाबू, जान मोहम्मद, हसरत अली नेता, आशिक अली, मोहम्मद दीन, हफीजुर्रहमान, नुसरत अली, नईमुल्ला, मसन्द अली, सहित और भी मोहल्ले के लोग मौजूद रहे।


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